26.6.09

आशाओं की मंडी




आशाओं की मंडी में घर अपना
फ़िर निराशा क्यों सताती है
हर पल भीड़ से घीरा हूँ
फ़िर ये शाम तन्हाई की बिस्तर क्यों लगाती है

हमने खुशबू हर चमन के फूल की ली
फ़िर मेरे चमन की कलि मुरझा क्यों जाती है

वैसे तो मैं हसमुख चन चल परन्तु
अन्तः ह्रिदय में एक रोस सी क्यों रह जाती है
हर चहल पहल को देख मेरे ह्रिदय वीणा
कुछ खास धुन क्यों गाना चाहती है
मनो कोई दूर अटल खड़ा
उसको यह लुभाना चाहती हैं

आशाओं की मंडी में घर अपना
फ़िर निराशा क्यों सताती है


यह कौन है जिसके बिना
सावन की हरयाली भी सुखी नजर आती है

मैं मानव, परन्तु मानव सी हर बात
मुझमें लुप्त नजर आती

हर शाम सागर किनारे बैठा मैं
परन्तु किसी कवि की पंक्तियाँ
मेरे सूनेपन को क्यों तोड़ नहीं पाती

आशाओं की मंडी में घर अपना
फ़िर निराशा क्यों सताती है


यह कैसी निर्जला स्वप्न है
जो मुझे जागते भी सुलाती है
मैं सकुशल परन्तु यह मुझे विकलांग बना जाती है

आशाओं की मंडी में घर अपना
फ़िर निराशा क्यों सताती है






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