ये दुनिया अजब बदलती देखी
कभी कही शाम तो कहीं सहर
हर चेहरें पे मेला बदलते चेहरों का
मैं नबील जो मुखातिब हूँ आप से
वो क्या मैं ही हूँ
या हूँ कोई चेहरा उधार का
जो भी हूँ, हूँ आपके ही पसंद का
सच न कहना है मुझे,
न सच में है आपकी रजा
जो आपने मुझमे मेरे ‘मैं’ को देखा
बस कुछ मायूस, कुछ होंगे खफा
दोंस्तों इसीलिए मैं पहनता रहूँगा नकाब
क्योंकि मुझे जीना है ज़माने के साथ
जो कभी तलब हो मेरे ‘मैं’ से मिलने की
उतार देना अपना नकाब,
होगी मेरे ‘मैं’ से मुलाक़ात
क्या मैं ढूंढ पाऊंगा खुद को खुद में
जिसे ढक डाला है हजारों चेहरों से
तुम भी कुछ यू ही होगे परीशान
आओ हम सब वक्त से हैं हारे
जीते रहेंगे अब झूट के ही सहारे
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