16.10.09

मेरे अश्क



हम बेजार हैं क्यों वो पूछते हैं हमसे

एक कतरा न प्यार का मिला हमें

और वो हमसे खोलुस का समंदर मांगते हैं

ये कैसा पैमाना हैं उनका
के वो हमारी लाचार सिसकियों में भी
साजिश सूंघ लेते हैं


और उनकी यलगार को भी हम
दुआ समझ ले ऐसा चाहते हैं वो

हमारे सूखी आंखों में खून देख लेते है वो
लेकिन उन्हें परवाह नहीं के
अब तो मेरी आँखों में अश्क ही नहीं
बचे


2 comments:

  1. नबील भाई, जिदंगी तृष्णा का समंदर है। शुक्र मनाइए कि इस समंदर में रहकर भी आप अपनी कविता के जरिए ऐसे सवाल पूछ रहे हैं। सबसे अच्छा लगा कि आप यह स्वीकार करने की जहमत उठा रहे हैं कि- "अब तो मेरी आँखों में अश्क ही नहीं बचे"
    दरअसल ऐसी बातें करनेवाले अब विरले ही मिलते हैं।

    शुक्रिया।

    (गुजारिश है कि कमेंट सेक्शन से वर्ड भेरिफिकेशन का झाम हटा दें ताकि लोग दिल खोलकर आपके लिखे पर अपनी बात कह सके।)

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  2. Thanks Girindra Bhai. I have removed it thanks

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