यूँ तो वो एक मुद्दत से चले थे साथ
पर मेरी ज़िन्दगी की एक होरूफ़ न पढ़ पाए
बोझिल जो थी जिल्द ये
हर खूबसूरत फ़साने को भी छोर गए
आज उनको गुरूर होगा के वो हमें समझ गए
पर वो अंधेरों में सुई तलाश कर लौट गए
शिकवा क्या करूं उनसे
जब हम भी हर सफे पे सियाही उड़ेल गए
ये कैसी थी नादानी, जब हम न थे आफताब
अंधेरों में क्यों उन्हें ले कर भटक गए
न जाने ये किन राहों पे हम भटक कर लौट गए
अब बदल तो ली है ये रहे हम ने
गर जो मिले कभी,
न तुम तरस खाना हम पे
हम भी रह जायेंगे चंद अश्क पि के
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