28.12.10

ग़ालिब


ग़ालिब होने की क्या जिद थी छाई मुझे

बड़ी महँगी पड़ी इस दौर-ए- haqikat में

सड़क पे चलता हूँ तो बच्चे हुल्लर मचाते हैं

बडो की गुफ्तगू में फजीहत की निशानी हूँ मैं

अल्फाज का तलवार ले कर खड़ा मैं

बेईमानी और नफरत, के दीवारों से घिरा हूँ

ग़ालिब याद तो तुझे शिद्दत से करता हूँ

एक बार आ के बता जा कैसे जियूं मै

आज अल्फाजों की भी तेजारत होती है

ज़ेहन भी दौलत के खुदा को करता है सजदा

मैं कहूँ तो क्या कहूँ, और कैसे कहू

कही इस बाजार में मैं भी बिक न जाऊं

ग़ालिब! अच्छा होगा तुम फिर न आना

वर्ना जो कह गए वो भी खो जाओगे

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