21.10.09

इंसान


दुनिया का दस्तूर मानों ये कहते हैं सब

अगर उनकी खुशी है तो खून के फवारे को

भी नीला समंदर समझ लो

तो फिर जीत जाओगे हर जंग


लेकिन हमें ये होशियारी कहाँ आती

हम आँखों से जो देखते हैं वही सच मानते हैं

रंग बदलने की सियासत सीखनी बाकि जो थी


आज हम रकीब बन बैठे जो हमने दिखाया था उन्हें आईना

क्या ख़बर थी हमें के वो ख़ुद से ही इतना अनजान थे


हमने बहुतों का ऐतराज देखा

उनका इल्जाम भी सुना


पर मैं मायूस हो गया जब मैंने उन्हें भी वही करते देखा

जिसकी वो करते थे फजीहत


दुःख हुआ जान कर के मैं भी उनमें से ही हूँ

जो ख़ुद के सच से रहता है दूर दुनिया कहती है हमें इंसान






1 comment:

  1. नबील इन दनों आपको पढ़ रहा हूं। आपके लिखे को पढ़ते वक्त एक आदमी का अहसास होता है, जो तेज दौड़ती दुनिया में सच बोलने के लिए समय निकाल लेता है। वैसे कमबख्त अब लोग सच बोलते कहां हैं। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि क्योंकि आप साफगोई से कह रहे हैं-
    दुःख हुआ जान के के मैं भी हूँ, इंसान जो ख़ुद की सच से रहता है दूर

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